मनोरंजन

गहराइयां फिल्‍म में भले गहराई न हो, पर उसे खारिज कर रहे लोगों की राय में कोई गहराई नहीं

अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई शकुन बत्रा की नई फिल्‍म गहराइयां को सोशल मीडिया पर तकरीबन एक सुर में खारिज कर दिया गया है. ज्‍यादातर लोगों की राय फिल्‍म के बारे में सिर्फ नकारात्‍मक है. लोग मजाक भी उड़ा रहे हैं. जितना केऑस और जटिलता फिल्‍म की कहानी में है, उसका एक फीसदी भी फिल्‍म के बारे में लोगों की राय में नहीं है. राय एकतरफा है, सीधी है, वन लाइनर है- फिल्‍म कूड़ा है. बात खत्‍म.

हालांकि कपूर एंड संस की स्‍मृतियों के साथ जब आप इस फिल्‍म तक पहुंचते हैं तो ढेर सारी उम्‍मीदों के साथ जा रहे हैं. जितना शोर और शांति, जितनी हलचल और ठहराव एक साथ पर्दे पर दिखा सकने का कमाल बत्रा ने कपूर एंड संस में दिखाया था, उसकी याद के साथ जाहिरन फिल्‍म से उम्‍मीदें बहुत ज्‍यादा होती हैं और फिल्‍म उस उम्‍मीद पर पूरी तरह खरी उतरती भी नहीं. कई बार निराश भी करती है. लेकिन यह फिल्‍म इस तरह बस एक सुर में खारिज कर दिए जाने लायक तो कतई नहीं है.

फिल्‍म को रिलीज हुए कुछ दिन हो चुके हैं. बहुत सारे लोगों ने फिल्‍म देख भी ली होगी. इसलिए हम फिल्‍म की कहानी नहीं सुना रहे. बस उसके कुछ अनदेखे, छिपे, जटिल और बहुस्‍तरीय पहलुओं को डीकोड करने की कोशिश कर रहे हैं.

चाइल्‍डहुड ट्रॉमा

हालांकि हिंदी में हीरो के बचपन की कहानी, बचपन के संघर्ष और ट्रेजेडी को दिखाने का इतिहास पुराना है, लेकिन शायद यह पहली ऐसी फिल्‍म है जो चाइल्‍डहुड ट्रॉमा के एडल्‍ट लाइफ पर पड़ने वाले प्रभावों की इतनी गहराई से पड़ताल करती है. अलीशा और टिया के मुश्किल और जटिल बचपन की यादें, दुर्घटनाएं और ट्रेजेडी ताजिंदगी उनका पीछा नहीं छोड़तीं. हमें लगता है कई बार कि हम अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ चुके हैं, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं.

वो सारी स्‍मृतियां हमारे अवचेतन में जिंदा होती हैं और हमारी मौजूदा जिंदगी को संचालित भी कर रही होती हैं. बस हमें उसका बोध नहीं होता. अलीशा की एंग्‍जायटी, फिअर, इनसिक्‍योरिटी, लोनलीनेस, इस सबकी जड़ें बचपन की असुरक्षा, डर और अकेलेपन में है. जैसाकि डॉ. गाबोर माते कहते हैं कि ट्रॉमा वो नहीं है, जो हमारे साथ बचपन में हुआ. ट्रॉमा वो है, जो घटनाओं के परिणामस्‍वरूप हमारे भीतर हुआ. हमारे समूचे तंत्रिका तंत्र और इनर वायरिंग में हुआ बदलाव. उस चाइल्डहुड ट्रॉमा को शकुन बत्रा ने बहुत बारीकी से और खूबसूरती से पकड़ने की कोशिश की है.

जीवन का केऑस

केऑस के लिए मुफीद हिंदी शब्‍द ढूंढना मुश्किल है. आप कहें अराजकता, गड़बड़ी, अस्‍तवस्‍त बिखरी जिंदगी, लेकिन किसी भी शब्‍द से वो गहरा अर्थ नहीं ध्‍वनित होता, जो केऑस शब्‍द सुनकर होता है. इस फिल्‍म के हर कैरेक्‍टर की जिंदगी में ढेर सारा केऑस है. ठीक वैसे ही, जैसे हमारी जिंदगियों में केऑस है. मुश्किलें, उतार-चढ़ाव और उथल-पुथल. कुछ भी सीधा और आसान नहीं है. कोई नहीं जानता कि वो वो क्‍यों करता है, जो कि वो करता है.

हम सीधी, सरल राह छोड़कर कई बार अपने लिए मुश्किल रास्‍ता ही क्‍यों चुनते हैं. हम अपनी उलझनों को सुलझा क्‍यों नहीं पाते, जबकि बाहर से और दूर से देख रहे व्‍यक्ति को बड़ा आसान लग रहा होता है उन्‍हें सुलझा लेना. लेकिन जो उस वक्‍त उस जगह उलझा होता है, वह और उलझता जाता है. सोचो तो अलीशा और करन, टिया और जेन रिश्‍तों की सीधी-सीधी राह पर ही चलते रहते तो जीवन में इतना केऑस होता ही नहीं.

लेकिन इस टेढ़े सवाल का कोई सीधा और नैतिक जवाब नहीं हो सकता. हर जवाब मुश्किल है, हम जवाब जटिल. मनुष्‍य की चाह, कामनाएं, सपने, इरादे, मन के भीतर के रहस्‍य, सबकुछ सत्‍य और नैतिकता के सीधे-सीधे खांचें में फिट हो सकने लायक बातें हैं ही नहीं. मनुष्‍य जटिल है और उसकी उसी जटिलता को शकुन हर बार अपनी कहानी में बहुत बारीकी और सादगी से उधेड़कर रख देते हैं.

कैमरा मानो दूर बैठा कैमरा नहीं, बगल में बैठा दोस्‍त हो

इस फिल्‍म की सबसे बड़ी खासियत इसका कैमरा वर्क है. कैमरा अमूमन पात्रों को, चरित्रों को ऐसे पकड़ता है कि वो कैमरे से इतर दूर बैठे चरित्र हों, कहीं दूर हो रही कोई घटना हो. इस फिल्‍म का कैमरावर्क मानो कहानी और चरित्रों के बीच बैठा हुआ खुद भी एक चरित्र है. कैमरे ने पात्रों की जिंदगी में घुसपैठ कर ली है. उनके बीच घुसकर, उनमें शामिल होकर उनमें से ही एक हो गया है. पर्दे पर कहानी और चरित्र हमें ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे हम दूर अपने कमरे में नहीं, मानो वहीं उन्‍हीं के कमरे में बगल में बैठकर घटनाओं को होते देख रहे हैं. कैमरा वर्क की क्रिएटिव‍िटी, स्‍टाइल और उसकी डेप्‍थ इस फिल्‍म में अलग ही स्‍तर पर नजर आई है. हालांकि ये शकुल का कमाल है. केऑस को वो जितना गहराई और कुशलता के साथ फिल्‍माते हैं, कहानी का केऑस हमारी जिंदगियों के केऑस जैसा दिखाई देने लगता है. वो हमारा ही हिस्‍सा हो जाता है.

अंत में छूटता कहानी का तार

इस कहानी की सबसे बड़ी दिक्‍कत यही है कि जितना महत्‍वाकांक्षी प्‍लॉट उन्‍होंने लिया था, उसे दूर तक और देर तक संभाल नहीं पाए. कहानी का तार हाथ से छूटने लगा. उलझी जिंदगी के रिश्‍तों की उलझन को दिखाने वाली इस फिल्‍म को मर्डर मिस्‍ट्री बनने की जरूरत नहीं है. उस रास्‍ते पर जाए बगैर कहानी अपने लिए कोई और रास्‍ता, कोई और मंजिल भी चुन सकती थी. लेकिन कुछ अलग हटकर करने की कोशिश में अंत तक आते-आते फिल्‍म अपने रास्‍ते से भटक गई और वही एक पॉइंट था, जहां जाकर कमजोर पड़ गई. वरना शकुन बत्रा की इस कहानी में जिंदगी और रिश्‍तों की गहराई को एक्‍स्‍प्‍लोर करने की अनंत संभावनाएं थीं. ये एक एक्‍सेप्‍शनल हिंदी फिल्‍म हो सकती थी. लेकिन वो न होने के बावजूद ये इस साल और पिछले साल ओटीटी प्‍लेटफॉर्म पर रिलीज हुई हिंदी की सबसे बेहतरीन फिल्‍मों में से एक है.

रीडर न्यूज़

Live Reader News Media Group has been known for its unbiased, fearless and responsible Hindi journalism since 2019. The proud journey since 3 years has been full of challenges, success, milestones, and love of readers. Above all, we are honored to be the voice of society from several years. Because of our firm belief in integrity and honesty, along with people oriented journalism, it has been possible to serve news & views almost every day since 2019.

रीडर न्यूज़

Live Reader News Media Group has been known for its unbiased, fearless and responsible Hindi journalism since 2019. The proud journey since 3 years has been full of challenges, success, milestones, and love of readers. Above all, we are honored to be the voice of society from several years. Because of our firm belief in integrity and honesty, along with people oriented journalism, it has been possible to serve news & views almost every day since 2019.

संबंधित समाचार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button